कल्पना

अच्छा सुनो ना एक राज़ बताओगी अपना
ये कल से बेहतर लगने का गुर हमें भी सिखलाओगी क्या
हर रोज़ तो मिलता हूँ तुमसे
फ़िर भी रोज़ बदली बदली सी नज़र आती हो

कई बार सोचता हूँ कि तुम ही होती हो
या तुम्हारी शक़्ल में मेरी कोई कल्पना

ख़ैर जो भी हो, कुछ देर तक ही सही
वक़्त मुझे कुछ पल दे ही देता है

तुमसे मिलता हूँ और फ़िर वहीं दोहरा कर
तुमसे कल फ़िर मिलने का वादा कर लौट जाता हूँ

कल फ़िर मिलने का वादा कर आज विदा ली हमनें
बिस्तर से उठते ही ख्वाबों का सहारा जैसे छूट सा गया
-वेद

 

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