कुछ शहर है जिनसे मैं गुजरा हूँ

कुछ शहर है जिनसे मैं गुजरा हूँ कुछ है जिनमें में छोड़ आया ख़ुद को किसी पार्क की बेंच पर सिनेमा हॉल की 10 वीं लाइन की चौथी सीट पर सिटी बस की उन सीटों पर जहाँ से ये शहर कुछ अलग जान पड़ते थे स्कूल के dustbin में पड़े रफ कॉपी के आख़िरी पन्ने पर

रास्ते, गलियाँ, चौराहें इन सब में थोड़ा थोड़ा
तस्वीरों को पलटते हुए
मैं शहरों को एक एक कर याद करता हूँ
तस्वीरों में जो हैं वो इस छूटे हुए से अलग है

मैं जहां छूटा था
वो सब तस्वीरों में नहीं

मैं अब एक नए शहर मैं हूं
ये सपनों के शहर जैसा हैं
बिलकुल वैसा जैसा दादी की कहानियों में होता था
तुम यहां आना कभी
यहां ऐसा बहुत कुछ जहां हम खो सकते है
एकांत है
जहां किसी को किसी की तलाश नहीं हैं

रात के ३ बज रहे हैं
और समंदर एक पूरा सूरज निगल लेने के बाद भी
रात का रंग लिए हुए हैं

जाती लहरों में
हर बार कोई अधूरी बात छोड़ रहा है
पर वही लहर जब
कुछ एक दूसरी लहरों के साथ मिलकर लौट आती
तो लगता है जैसे तुम लौट आई हो
अधूरी कुछ बातों के साथ

मैं अब समंदर के दूसरे कौने को देखने की कोशिश कर रहा हूं
जैसे उस पार कोई शहर है
जहां मैं छोड़ आया था खुद को

-वेद

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