खुदगर्ज़


     सुना है आजकल वो नफ़रत करने लगे है हमसे, जो कभी साथ थे अब अजनबी से पेश आते है। क़सूर वैसे सारा हमारा ही तो है जब हमनें वक़्त चाहा तो थोड़ी नाराज़गी से ही सही पर उन्होंने अपना साथ हमें दिया। खुदगर्ज़ सा मेरा मन हर बार की तरह एक कोरे से पन्ने की तलाश में कुछ रंगीन कहानियां पीछे छोड़ आया। मेरी कहानियों में मैंने उन्हें इतना मशरूफ कर रखा था, कि जब वो असल में हमसे मिले तो जाने क्यों फ़िर कभी नहीं मिले।
    आज सफ़र में जब अपनी कलम को साथ लिए कागज़ों से गुफ्तगू करने लगा तो पाया कि तुम न कहानियों में ही अच्छी लगती हो। मैं तुमसे कैसे पेश आऊ, मैं नहीं जानता। पर अब मुमकिन नहीं कि मैं तुमसे रूबरू हो जाऊँ।

सिराहने पर रखे एक ख़्वाब सी हो तुम
जब तक नींदों में हूँ साथ हो तुम

- वेद

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