रूबरू
शाम का मुसाफ़िर हूँ
ढ़लती रातों में सुबह तलाशता हूँ
वक़्त से आगे चल कर कुछ कदम
फिर वहीं ठहर कर ख़ुद का इंतज़ार करता हूँ
ख़बर है कि जिंदगी रूठ गई है मुझसे
कहती है ये नकाबों का चौला उतार कर
अपने तरीक़े से एक बार ही सही
जी कर के देखों
क्या करूँ इन नकाबों के शहर में रहता हूँ
तन्हा सा भीड़ में खोया रहता हूँ
अपने ही क़िरदारों को दूसरों की कहानियों में जीता हूँ
क्या करूँ नकाबों के शहर में रहता हूँ
आयने रूठ से रहने लगे है आजकल वेद
खुद से रूबरू हुए अरसा बीत गया
-वेद
ढ़लती रातों में सुबह तलाशता हूँ
वक़्त से आगे चल कर कुछ कदम
फिर वहीं ठहर कर ख़ुद का इंतज़ार करता हूँ
ख़बर है कि जिंदगी रूठ गई है मुझसे
कहती है ये नकाबों का चौला उतार कर
अपने तरीक़े से एक बार ही सही
जी कर के देखों
क्या करूँ इन नकाबों के शहर में रहता हूँ
तन्हा सा भीड़ में खोया रहता हूँ
अपने ही क़िरदारों को दूसरों की कहानियों में जीता हूँ
क्या करूँ नकाबों के शहर में रहता हूँ
आयने रूठ से रहने लगे है आजकल वेद
खुद से रूबरू हुए अरसा बीत गया
-वेद
Badia...
ReplyDeleteApplauds 👏👏
ReplyDeleteBahut badiya yar
ReplyDeleteDill jit liya bhai
ReplyDeleteBhot badhiya likha hai
👍 बहुत खूब 😊
ReplyDeleteShandar
ReplyDeleteशाम का मुसाफिर हु। क्या खूब लिखा है।
ReplyDeleteWell done sahab , padh ke wo scene yaaad gya Tamasha ka ...... Bht badiya likhte raho
ReplyDeleteWell done!!! After a long time like old ved!! Keep writing.
ReplyDeleteThis was something really beautiful....😍😍
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