जून की आख़िरी सुबह

जब वापस मिलने की उम्मीद हो तो हम वर्तमान मुलाकातों को थोड़ा हल्के में ले लेते है। अब मेरे लौट कर आने की तारीख़ निश्चित होती थी, तो ऐसे में हम बहुत कुछ अगली बार के लिए बन पाने वाली स्मृतियाँ के लिए छोड़ देते थे। 




मैं भी कहाँ देख पाया था, जून की वो आख़िरी सुबह, हल्की बारिश और भीगते हम। अब जब मेरा लौट आना कठिन हो चला है, तो मुझे लगता था किसी दिन फ़िल्मों जैसा कुछ होगा। किसी अंजान सफ़र में अचानक से तुम मेरे साइड वाली सीट पर बैठ जाओगी। हम चौंक कर एक दूसरे से मिलेंगे, पर ऐसा नहीं होता। बस, ट्रैन और कभी कभी हवाई जहाज ये सब हम दोनों को एक साथ नहीं बुलाते। शायद हमारी यात्राएँ काफी अलग है, जिनका बीच में कहीं टकरा जाना संभव न हो। कल जब मैं अपने कमरे की खिड़की के बाहर तुम्हारे शहर जाने वाली बस देख रहा था, तो मुझे लगा कि मुझे देख लेना चाहिए कि तुम हो नहीं। या फिर किसी दिन उस ओर जाती किसी बस में बैठ जाऊं और इससे उम्मीद का होना बना रहे कि हम जून की किसी शाम में देख ले उसका रात हो जाना और बारिश की बूंदों का हम बरस जाना। 

-वेद

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