रफ़्तार




मैं जाते जाते उस दृश्य को देखता रहा।

 सब कुछ साफ दिखाई देता हो और मन फिर भी धुँधली स्मृतियों में खो जाए।
क्या कुछ सालों का हिसाब हम कुछ पलों में समेट सकते है? 
हो सकता है आज किसी सफ़र को मंजिल मिल गई हो, पर न जाने ऐसे कितने सफर तय किये है इसी सफ़र के अधूरे से । ढलती शाम को जब ख़त्म होते देखता हूँ, तो न जाने कितनी शामें सामने आ जाती है। चाय की दुकान पर कुछ 20-25 हँसते चेहरे फिर से उसी जगह मिलने का एक अनकहा वादा कह कर उठे है। फिर एक शाम और फिर वही जगह, कुछ नए चेहरे कुछ वही पुराने। कुछ साल इतने जल्दी निकल जाते है, मानो हम वहीं बैठे बैठें उन्हें जी गए है। मैं होस्टल के दिनों को याद कर बहुत कुछ लिख सकता हूँ पर आज नहीं। वो ऐसे दिन है जिन्हें शब्दों पिरोये रखना मुश्किल है। कुछ पल अपने अपने हिस्से के होते है, उन्हें बस उतनी सी कहानी में रख देना चाहिए। यादें इन्सुरेंस पॉलिसी की तरह बनानी चाहिए, धीरे धीरे। ज़िंदगी की रफ्तार बहुत तेज़ है, तो स्लो ये शब्द बहुत ज़रूरी हो जाता है। हमें शामों से सीखना चाहिए, वो दिन की रफ़्तार को कितना धीमा कर देती है रात तक पहुँचते पहुँचते। ताकि हम सब उस बीच यादें बना सके। 

वेद 

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