खिड़कियों से झाँकता मन



बादलों में आकृतियां गढ़ लेने से, 
उनमें सजीव चित्र बना लेना
मेरी आदत हो चली है 
मैं कई सारे क़िरदार बुन चुका हूँ 
जैसे एक स्टेशन पर खड़ा शक़्स है 
ख़ुद की वापसी की राह देखता 
ये बिल्कुल उन्हीं बादलों की तरह है 
जिन्होंने ढक दिया है सूरज 
और ज़मीं पर ढूंढ रहे किरणों की लालिमा 

कई सारे नायक बिछड़ चुके है शहरों से,
शहर पीछे अपना गाँव होना छोड़ आए 

बादलों के टुकड़े आपस मिलते है 
फिर बिछड़ जाते है 
बूढ़े बादल बरस जाना चाहते है
जाने किसी दाब के चलते
वे भी अब ख़ामोश आकृति है एक 
नए बादल शायद सफ़र में है 
और मैं उन्हें प्रयासरत देखते रहता हूँ 
दूर क्षितिज पर फिर उनके चित्र धुँधले हो जाते है
खिड़कियों से झाँकता मेरा मन 
शहर दर शहर 
बुनने लगता है कहानियाँ 
ठीक उसी तरह जैसे 
बादल बुनने लगते है किरदार 

मैं कुछ देर के लिए आँखें बन्द कर 
अपनी स्मृतियों में कैद कर लेता हूँ कुछ चित्र
और कुछ एक चित्र मैं
लाख कोशिशों के बाद भी नहीं बना पाता
ये शायद दूर होंगे 

मन जब भी होता है 
सफर में
ना जाने कितने सफर तय कर लेता है 
उस एक सफर में

-वेद

Comments

Popular Posts