इसे ग़ुनाह कहते है

आदत हो जाने दूँ इन सब कि
हो जाये तो ही बेहतर है
इन्हें फ़र्क नहीं पड़ता हैं
तुम्हारी आदतों से
मैं सच कब तक बोलूँगा
अरे तुम भी सोचों न
तकलीफ़ औरो को हो
ऐसा इरादा नहीं है मेरा

तुम साथ देते तो
मैं कहता भी कुछ
अरे रहने ही दो
मैं सच नही बोलता अब
मैं अक्सर सच बोल कर सोचता हूं
सोचता हूं कि ये ग़लत तो नहीं है ना
क्यूँकि मैं जहाँ रहता हूं
वहाँ इसे गुनाह कहने लगे है ना

कोई फायदा है क्या यहाँ ईमान का वेद
ये वो है जो ज़मीर ढूंढते है बेमान का

         

Comments

  1. Good Work Vedant. Keep it up and grow high - Rishi

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