इस बार

वो रोज़ मेरे दरवाजे पर आता है
उसकी साइकिल की घंटी सुनते ही मैं
दरवाजे पर आ जाती हूँ
फिर देखती हूँ की
अपनी ज़र्ज़र हो चुकी साइकिल से
फिर वही मेरे आँगन में साइकिल से सटकर
खड़ा हो जाता है
फिर अपने लिफाफे में कुछ टटोलता है
उसका लिफाफा सुर्ख लाल रंग का है
उसपे एक काली पट्टी भी बंधी है
खाकी रंग की मैली सी पौषक वाला
ये आदमी फिर मेरी तरफ हसकर देखता है
और कल फिर आने का वादा कर लौट जाता है

दरअसल मैंने एक चिठ्ठी लिखी थी
बस उसी का जवाब लेके वो रोज़ आता है
पर उसके लिफाफे में मेरे वाले का
जवाब ही नहीं होता
मैं उसके जाने के बाद सोचती हूँ
लगता है संदेसा पंहुचा ही नहीं

--वेद 

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